कविता शीर्षक – मां
जगत जननी
सृष्टि स्वरुपिणी।
ज्ञान दर्पण
संस्कार वाहिनी।।
चंद्र मुख आंचल में
धड़कन वादिनि।।
अनगढ़ ढांचे को
संघर्षों से जूझ इंसान
बनानें वाली शक्ति।
विद्या की अलख जगा
जहां को समेट हौसला
बढ़ाने वाली भामिनी।।
सभ्यता- संस्कृति की पताका
फैलाने वाली मेरी शक्ति स्वरुपिणी
अंश की जगत जननी मां।
तुम बिन अस्तित्व विहीन जनमानस
बीच बहुत अकेली हूं
मेरी जिंदगी,मेरी आत्मा, मेरी मां।।
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पहला प्यार, पहला गुरु और
मेरी धड़कन तुम हो मां।
सर्वस्व न्यौछावर तुम पर है तुम
बिना सूना कुदरत का ऐतबार।।
तुम वाणी हों, तुम आंखें हो और
तुम ही समस्त संसार।
यह अनगढ़ ढांचा जिसमें तुमने
भरा है इंसानियत का प्यार।।
कैसे लिखूं मैं तुम पर मेरी मां
शब्दों का है बहुत अकाल।
मैं तुमसे हूं और मां तुममें
छुपा हुआ है प्रकृति का सार।।
बहुत प्यारी कविता है