कविता शीर्षक – वक्त
क्या हुआ ? हैरान हो क्यों ?
मुझे लेकर तुम, यूं परेशान हो क्यों ?
तुम्हारे जीवन का , आधार हूं मैं ,
मेरे अस्तित्व से तुम , अंजान हो क्यों ?
तेरी रेखाएं हैं जिसपे , वो हस्त हूं मैं |
समझो मुझे , वक्त हूं मैं |
कभी तुम्हारे लिए फूलों की,
सेज सजा देता हूं |
कभी राहों पर चुभते हुए ,
कांटे बिछा देता हूं |
मैं बदल देता हूं रंग अपने ,
इस कदर ए मेरे दोस्त |
मैं सबको ज़िदंगी जीने का ,
सलीका सीखा देता हूं |
कभी मोम हूं , तो कभी सख्त हूं मैं |
समझो मुझे , वक्त हूं मैं |
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तुम लाख करो कोशिश तो क्या !
मैं फिर भी चलता जाता हूं |
क्या है कीमत होने का मेरे ,
खुद को खोकर ही बतलाता हूं |
तेरा उदय भी हूं , तो कभी अस्त हूं मैं |
समझो मुझे , वक्त हूं मैं |
कभी निराशाओं के अंधेरों की ,
रात सजा देता हूं |
तो कभी जगमगाती आशाओं के ,
दीपक जला देता हूं |
कभी बुन देता हूं चक्रव्यूह का ,
मैं जाल इस कदर |
मैं तुम्हारे अंदर पनपती हुई ,
सारी इच्छाएं गला देता हूं |
कभी मधुशाला हूं , तो कभी रक्त हूं मैं |
समझो मुझे , वक्त हूं मैं |
यूं कर ना मुझको अनदेखा तू ,
तेरी हर एक सांस सा , खास हूं मैं |
मेरे होने से ही तो आज है ,
जो गुज़र जाऊं, तो इतिहास हूं मैं |
कभी घुटन हूं, तो कभी मस्त हूं मैं,
समझो मुझे, वक्त हूं मैं ||