कविता शीर्षक – “उलझन”
पल पल में उलझन लगे
सांस लेने में ना मन लगे
खुद के ख्याल खुद को ही काटते
जितनी ख्वाहिशें खुद में सब कम लगे
लगे हर तरफ अंधेरा रास्ता ना पास हो
फिर कैसे जी सकोगे
गर राम सा वनवास हो
गर राम सा वनवास हो
आंख मीचे चल रहे मन मे घुटन भरे
चैन से सोने को कितने ही जतन करे
करवटें बदल बदल रात तुमने काट दी
आमरदेह बिस्तर लग रहे चुभन भरे
कैसे नींद आये जब आत्म ना पास हो
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फिर कैसे जी सकोगे
गर राम सा वनवास हो
गर राम सा वनवास हो
संवेदनाये खत्म हुई स्वार्थ हावी हो रहा
अदल बदल की चाह में प्यार कंही खो रहा
दर्शन की थी ज़िंदगी प्रदर्शनों में जी रहे
धर्म भी दूर कंही कोने में खड़ा रो रहा
किस की कसम उठाये जब कोई ना खास हो
फिर कैसे जी सकोगे
गर राम सा वनवास हो
गर राम सा वनवास हो||