कविता शीर्षक – ये मन अधीर
ये धीर अधीर हुआ मन क्यों
क्यों भरता आंखों का प्याला है
क्यों छलक उठे सावन पल पल
क्यों उलझा मन मतवाला है
क्यों फूल फूल मुरझाए से
क्यों हंसता दिल का छाला है
क्यों दरक दरक जाए जख्म सिरे
क्यों रूठ गया रखवाला है
आंखें झरतीं ज्यों पीत पात
मन झरता जैसे पाला है
तन मद्धम मद्धम गलता ज्यों
लगे मौत का एक निवाला है
क्यों रूठ गया घनश्याम बता
सब तूने ही रच डाला है
मीरा के जैसी प्रीत पगी
दिया हाथ में विष का प्याला है
उलझे उलझे गेसू जैसे
उलझी उलझी राहें दे दीं
मन माखनचोर चुरा कर के
तूने खेल रचा निराला है