Raghav Writing Solutions Competition पढ़िए…. राष्ट्रीय साहित्य प्रतियोगिता 2022 के प्रतिभागी “निखिल टंडन” द्वारा लिखित कहानी “ग़रीबी–एक अभिशाप…..”

पढ़िए…. राष्ट्रीय साहित्य प्रतियोगिता 2022 के प्रतिभागी “निखिल टंडन” द्वारा लिखित कहानी “ग़रीबी–एक अभिशाप…..”


ग़रीबी–एक अभिशाप nikhil tandon raghav writing solutions

कहानी शीर्षक: ग़रीबी–एक अभिशाप

“बाबा आज नवमी भी निकल गयी, आप आज भी मुझे दशहरा मेला दिखाने नहीं ले गए” बड़े उदास मन से तितली ने अपनी माँ सविता की ओर देखते हुए अपने पिता राजेश से बोला। राजेश दिहाड़ी मज़दूर था। जिस दिन काम मिलता उस दिन घर मे चूल्हा जलता और बाकी दिन रूखा-सूखा खाकर ही तीनों सो जाते। बीते कुछ दिनों से राजेश को कहीं काम ही नहीं मिल रहा था। इसलिए वह अपनी तितली को इस साल दशहरा मेला दिखाने नहीं ले जा पाया। तितली की बात सुनकर राजेश का दिल मानो रो उठा कि वह अपनी बिटिया को मेला तक दिखाने नहीं जा पा रहा है। डरता था कि वहाँ जाकर तितली ने कुछ माँग लिया तो पैसे न होने पर उसके मन को ठेस पहुँचेगी। पर बिटिया के मन को रखने के लिए बोला -“दिन भर तो तितली बनी हर जगह उड़ती रहती है मन नहीं भरता फिर भी तेरा, हैं?

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चल कल रात रावण दहन दिखाने पक्का ले चलूँगा तुझे। ठीक है? चल अब सो जा!” तितली के बिस्तर पर जाने के बाद सविता राजेश को आँखे दिखाती हुई धीमी आवाज़ में बोली “क्यों झूठी दिलासा देते हो उसको? काम धाम तो कुछ मिलता है नहीं तुमको, उसको मेला क्या मेरी ये आख़िरी चूड़ी बेचकर दिखाने ले जाओगे?” राजेश अपनी पत्नी के आँसू पोंछते हुए कहता है “क्यों उदास होती है पगली देखना कल मुझे काम पक्का मिलेगा फिर हम तीनों मेला देखने जाएँगे।” इस सोच में डूबा वह अगली सुबह जल्दी उठकर काम की तलाश में निकल पड़ता है ताकि कुछ रुपये कमाकर वह अपनी तितली को मेला घुमाने ले जा सके। आधा दिन काम ढूंढते-ढूंढते यूँ ही निकल गया। दशहरे का दिन था तो बाज़ार में भी ख़ूब रौनक थी। फिर एक दुकान पर पहुँच कर वह साहूकार से हाथ जोड़ कर बोला “साहब कुछ काम मिलेगा?” साहूकार उसके लटके हुए चेहरे को देख उसकी मजबूरी को भाँप लेता है और अपने चश्में को नाक पर चढ़ाते हुए कहता है “भाई काम तो कुछ नहीं है, माल आना था लेकिन दशहरा है तो लगता आज नहीं आएगा। जा कल–परसों आना फिर देखता हूँ कुछ होगा तो बताऊँगा।” “साहब यह कुछ बोरियाँ बाहर पड़ी हैं बताओ तो यही उठा कर गोदाम में रख दूँ? जो ठीक समझना दे देना।

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बिटिया को आज मेला दिखाना है बहुत कृपा होगी मालिक” राजेश अपने गमछे से माथे का पसीना पोंछते हुए बड़ी आस लगाकर उस साहूकार से बिनती करता है। साहूकार को काम तो था त्योहार पर कोई लड़का जो नहीं आया था आज दुकान पर किन्तु राजेश पर एहसान जताते हुए बोला “ठीक है, वैसे करवाना तो नहीं था लेकिन चल ऐसा कर यह सारी बोरियाँ उठाकर चौराहे पार उस गोदाम में ले जाकर रख दे। मेरा गार्ड होगा वहाँ, वो बता देगा कहाँ पर रखना है।” राजेश काम पाकर बहुत खुश जाता है और उन सौ-सौ किलो की पच्चीस बोरियाँ जैसे-तैसे करके गोदाम तक पहुँचा देता है और साहूकार से आकर अपना मेहनताना माँगता है। साहूकार अपने गल्ले से एक पचास रुपये का गला सा नोट निकाल कर उसको देता है। “मालिक पूरी पच्चीस बोरियाँ रखी है और कहने को तो गोदाम सामने है पर आपके उस गार्ड ने दूसरी मंजिल तक चढ़वाया था बोरियों को। एक बोरी का कम से कम दस रुपया तो बनता ही है मालिक।” “एक तो काम दिया ऊपर से मुँह मांगी मजूरी भी चाहिए तुझे। दो रुपये बोरी से एक कौड़ी ज़्यादा नहीं मिलेगी समझा? तू खुद आया था काम की गुहार लेकर। मैंने हाथ नहीं जोड़े थे तेरे। चल अब पैसे उठा और निकल यहाँ से।” राजेश- “मालिक ग़रीब की मेहनत का मज़ाक न उड़ाओ। मेहनत का माँग रहा हूँ। त्योहार का दिन है। बिटिया को मेला ले जाना है, परिवार की दुआ लगेगी।” इतना सुनते ही वो साहूकार अपने गार्ड को बुलाता है। गार्ड राजेश को दुकान के सामने से धक्का देकर भाग जाने को कहते हुए उस पचास रुपये के नोट को उसकी तरफ फेंक देता है। नोट हवा में उड़ता हुआ सड़क के बीच जा कर गिरता है।

राजेश के लिए मरता क्या न करता वाली स्थिति थी अढाई सौ तो दूर अब तो वो पचास रुपये का नोट भी उसे उससे दूर जाता दिख रहा था। राजेश बिना कुछ देखे उस नोट को उठाने दौड़ता है। चौराहे पर आती जाती गाड़ियाँ हॉर्न बजाते हुए निकल रही होती हैं। गाडिय़ों से बचते हुए राजेश किसी तरह उस नोट को सड़क से उठाता है। नोट हाथ में उठाते ही राजेश की आँखे भर आती हैं। मानो अपने आप से ही बात करता हुआ कह रहा हो “माफ़ करना बिटिया बस इतना ही कर पाया तेरा बाप इस दशहरा तेरे लिए” और भबक-भबक कर रोने लगता है। #निष्कर्ष: दोस्तों हमारे समाज का यह एक आम पहलू है। हर कोई ग़रीब की मजबूरी का फायदा उठाने को आतुर रहता है चाहे वो मजदूर हो, रिक्शा चलाने वाला हो या कोई और ज़रूरतमंद। हर इंसान दूसरे के नुकसान में अपना फायदा देखता है। लाचार ग़रीब अपनी इस कमज़ोरी को अपनी किस्मत समझकर ऐसे ही पूरा जीवन ज़िन्दगी से लड़ते हुए निकाल देता है।

खुद को राजेश की जगह रख कर देखिए और सोचिए उस बाप की क्या मनोस्थिति रहती होगी जो दिन भर की मेहनत के बाद भी अपने बच्चे की छोटी सी इच्छा पूरी करने में विफल हो जाता है और ऐसा एक बार या किसी एक के साथ नहीं बल्कि अनेकों बार और ग़रीब तपके के लगभग हर परिवार के साथ होता है। आइए हम इस बुराई को अपने समाज से दूर करने का प्रण लें। ज़्यादा न सही तो कम से कम ग़रीब मज़दूर को उसके हक़ का तो मेहनताना दें या दिलाने का प्रयत्न करें।

निखिल टंडन

Disclaimer : उपरोक्त कहानी लेखक “निखिल टंडन” द्वारा लिखी गई है, जिसके लिए वह पूर्ण रूप से जिम्मेदार हैं। हमें आशा है कि आपको यह कहानी पसंद आएगी। कृपया हमें कमेंट करके अवश्य बताएं कि आपको यह कहानी कैसी लगी….!

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