कविता शीर्षक – नारी मन…!
क्यों कहते हैं,
नारी मन को समझ कोई ना पाया
नारी मन अनमोल रत्न,
जिसको कितनों ने छल से है चुराया।
उस मन के एहसास करें यत्न,
उन यत्नों पर खरा कोई ना उतर पाया।
मन पंख लगा उड़ना चाहता है
पर,पंख ना कोई दे पाया
कतर-कतर कर इन पंखों को वश जाल बनाया,
नारी मन को सीमित कुंडल पहनाया।
भूरि-भूरि प्यार पनपता
अनुराग मन,प्रेम को तरसता
प्रीत जकड़ की जंजीरों में
नारी मन,मुक्त तन सरल प्रेम नारी मन की विशालता कहलाया।
नारी मन त्याग का सरोवर
उदारता इस मन का घर
समर्पण का लगाकर महावर
कूटरीति की अग्न में पाँव रही हैं धर
तानों की ज्वाला में झुलस रही हैं मर।
नारी मन के भेद को
समझ कोई न पाया
रिश्तो को निभाने की खातिर खुद का अस्तित्व गवाया।