कविता शीर्षक – हुस्न का राज बताओ..…!
प्रकृति ओ प्रकृति
तुम क्यों इतनी निखरी।
हुस्न का राज़ जरा हमें बताओ
हम हैं तेरे दीवाने हमसे कुछ न तुम छुपाओ।
झरनों को कैसे तुमने निर्मल बनाया?
समीरों को कैसे तुमने चंचल बनाया?
गुलों को कैसे इतना कोमल बनाया?
नजारों को कैसे तुमने निखारा?
राज़ यह जानने को मैं हूं बेकरार,
कुछ बताओ की आए मुझे करार।।
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मैं पूछता हूं आलियों से,
तुम क्यों जाते सुमन के पास।
क्यों फिदा तुम कुसुम पर,
क्या तुम्हे इसका कुछ होता एहसास।
बताती है हमें भवरे ।राज यह है बड़ा दीवाने।
किस हार से तुमने सिंगार किया,
किस अदा से सबको बेकरार किया।
राज़ जरा खोलो हमसे कुछ बोलो।
मैं तेरा हूं दीवाना ,मुझसे तुम कुछ न छिपाना
प्रकृति तुम मुझे अपने करीब लाओ।
ए बहार,मुझे अपना हबीब बनाओ।
मैंने तो राज़- ए – दिल को नही छुपाया,
तुम भी न छुपाओ, कुछ तो बताओ,
अपने हुस्न का राज़ तो बताओ।।