Raghav Writing Solutions : 1. कविता शीर्षक – जज्बा
कुछ कर गुजरने का है जज्बा मुझमें,
कुछ कर दिखाने की चाहत है;
जिस दौर से गुजरा हूँ मैं,
उस दौर की मुझको आहट है।
ना थकूँगा ना ही रूकूँगा कहीं,
एक दिन जरूर कुछ कर दिखाऊँगा;
ज़िंदगी में आए चाहे कितनी भी मुश्किलें,
मैं उन मुश्किलों से भी लड़ जाऊँगा।
हौंसले बुलंद हैं मेरे,
बस मंजिल पाने की चाहत है;
जिस दौर से गुजरा हूँ मैं,
उस दौर की मुझको आहट है।
छोड़ दिया है साथ उन्होनें,
जिनसे मेरे कुछ सपने थे ;
तोड़ दिए वो रिश्तें उन्होनें,
जो मेरे कभी अपने थे।
अकेला चलना सीखा है मैनें,
अब तो मेरी यह आदत है,
जिस दौर से गुजरा हूँ मैं,
उस दौर की मुझको आहट है।
कुछ कर गुजरने का है जज्बा मुझमें,
कुछ कर दिखाने की चाहत है;
जिस दौर से गुजरा हूँ मैं,
उस दौर की मुझको आहट है।।
– डॉ राघव चौहान
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2. कविता शीर्षक – अंधविश्वास
वर्षों से जो चला आ रहा,
पीढ़ी दर पीढ़ी के पार।
आँख मूँदकर हम चल देते,
उस पथ पर बुध्दि को मार।
पंडित जी को करो दान,
वरना पाप के भागी बन जाओगे।
नरक में जाकर तुम,
इस ग़लती की सजा बड़ी पाओगे।
सोना-चाँदी का दान करो,
कपड़े रेशम के कर दो वार।
अन्न-धन से झोली भर दो,
तब खुलेगा स्वर्ग का द्वार।
तर्क वितर्क शिक्षा विवेक के,
दरवाज़े करके हम बंद।
पंडित मौलाना और पादरी की,
सुनते रहते है सब व्यंग्य।
परिवर्तन का समय यही है,
अंधविश्वास की जड़ खोलो।
बन कर एक अंधा इंसान,
मानवता को तुम टटोलो।
– डॉ राघव चौहान
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3. कविता शीर्षक – मंगलसूत्र
मैं एक पवित्र रिश्ते का प्रमाण हूँ,
मैं एक सुहागिन स्त्री के जीवन का ब्रह्माण्ड हूँ।
रंग हूँ मैं धारण करने वाली रमणी का,
श्रृंगार हूँ मैं हर जगत जननी का।
मैं महत्वाकांक्षाओं का हार हूँ,
विनीतता कामिनी का व्यवहार हूँ।
मैं रिश्तों के प्रस्ताव से अनेक व्याख्याओं का प्रसार हूँ,
मैं मंगलमय परिस्थितियों की बौछार हूँ।
आपकी अपेक्षाओं से बढ़कर,
सिर्फ़ एक तरल पदार्थ से हटकर।
मैं एक उत्सव हूँ विवाह संस्कार का,
अत: मैं सार हूँ रिश्तों के उपचार का।
वायुमंडल के हर कमण्डल से पूछो,
श्रृंगार के हर कंगन से पूछो।
वो कहानियां सदियों की लाएंगे,
और तुम्हें मेरा महत्व बताएंगे।।
– डॉ राघव चौहान
4. कविता शीर्षक – मैं तुम पर एक किताब लिखूंगा….
तुम्हारी यादों को दिल में संजोकर
मैं आज एक पैगाम लिखूंगा|
तुम रहती हो सदा धड़कनों में मेरी
मैं तुम पर एक किताब लिखूंगा|
करवटें बदलता हूँ जिन्हें देखकर मैं
वो सारे हसीं ख्बाब लिखूंगा|
दिन के उजाले में महसूस करता हूँ तुम्हें
इंतज़ार में तुम्हारे एक शाम लिखूंगा|
तुम रहती हो सदा धड़कनों में मेरी
मैं तुम पर एक किताब लिखूंगा|
ना हुई है, ना कभी होंगी तेरी यादें जुदा मुझसे,
मैं ऐसी मिसाल हर बार लिखूंगा|
ना कोई डर मुझे इस दुनिया के रसूलों का,
मैं अपने प्यार को सरेआम लिखूंगा|
तुम रहती हो सदा धड़कनों में मेरी
मैं तुम पर एक किताब लिखूंगा|
मुस्कुराती रहो तुम जिंदगी में यूं ही हमेशा,
मैं ऐसी हर दुआ तुम्हारे नाम लिखूंगा|
करनी होगी जब भी इजहार-ऐ-मोहब्बत तुमसे,
मैं हर बार तुम्हें अपनी जान लिखूंगा|
तुम रहती हो सदा धड़कनों में मेरी,
मैं तुम पर एक किताब लिखूंगा।
– डॉ राघव चौहान
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5. कविता शीर्षक – नारी-दुर्दशा
गर्भ में भी वो दरिंदगी का शिकार थी,
ऐसे विज्ञान पर तो इंसानियत भी शर्मसार थी,
ममता कि नहीं इस बार मानवता की हार थी,
बचा ले माँ मुझे यह उस मासूम की पुकार थी,
दरिंदों के आगे वह माँ भी लाचार थी,
और गर्भ में भी वह दरिंदगी का शिकार थी।
ऐसे विज्ञान में पर तो इंसानियत भी शर्मसार थी।।
गलियों में चलना उसका मुश्किल था,
सहमा हर वक्त उसका दिल था,
जिस्म का नहीं वो उसके रूह का कातिल था,
उस रात उसे नोचने में जो-जो शामिल था
इंसान कहलाने के कहाँ वो काबिल था,
सम्मान छीनने का हक उन्हें कहाँ से हासिल था,
और गलियों में चलना भी उसका मुश्किल था।
सहमा हर वक्त उसका दिल था।।
धन की लालच में घर की लक्ष्मी को सताया,
माँ ने जिसे धूप से भी बचा कर रखा,
दरिंदों ने उसे जिंदा आग में जलाया,
लालच इस कदर सवार उनकी आँखों पर हुआ,
अपने हाथ से अपनी मानवता को सूली पर चढ़ाया,
माँ ने जिसे धूप से भी बचा कर रखा।
दरिंदों ने उसे जिंदा आग में जलाया।।
बेवजह अत्याचार सहती रही,
मत मारो मुझे सहमी आवाज में वो कहती रही,
घरवालों की इज्जत बचाने की कोशिश करती रही,
वो मारते रहे पर वो मरती रही,
बहुरानी उस घर की गुलामों की तरह रहती रही,
बेवजह अत्याचार सहती रही।
मत मारो मुझे सहमी आवाज में वो कहती रही।।
किस तरह वह टूटी होगी जिस दिन,
किसी ने उसके जिस्म को दाम पर लगाया,
किस तरह उसकी रूह रोई होगी जब,
किसी ने उसे इस काम पर लगाया,
खुद ही पैसा तुमने उसके नाम पर लगाया,
और खुद ही कलंक तुमने उसके ईमान पर लगाया,
किस तरह वो टूटी होगी जिस दिन।
किसी ने उसके जिस्म को दाम पर लगाया।।
– डॉ राघव चौहान